पश्चिमी मीडिया और भारत: एन.के. त्रिपाठी


       वर्ष 1998 में एक महीने की अपनी प्रथम विदेश यात्रा में मैं इंग्लैंड और यूरोप गया था।  मुझे यह आश्चर्य हुआ कि वहाँ के किसी भी समाचार पत्र में भारत के संबंध में कोई भी समाचार नहीं था। यही स्थिति अमेरिका की थी। आज पश्चिमी मीडिया के मुख्य स्तंभ न्यूयॉर्क टाइम्स, फ़ाइनेंशियल टाइम्स, द गार्जियन और द इकोनॉमिस्ट भारत के बारे में विशेष संपादकीय लिखते हैं।पूर्व में यदा कदा भारत में भूख से मृत्यु की ख़बरें वहाँ पर छपती थीं। आपातकाल की ज्यादतियों से भी वहाँ का मीडिया अवश्य विचलित हुआ था। केवल हमारे पूर्व शासक इंग्लैंड का BBC रेडियो भारत को पहले तथाकथित स्वतंत्र समाचार दिया करता था। मुझे याद है कि आपातकाल के बाद हुए चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस के सफ़ाये तथा इंदिरा गांधी के पिछड़ने का प्रथम समाचार खंडवा में मतगणना स्थल पर लोगों ने मुझे BBC सुन कर बताया था।ऑल इंडिया रेडियो अंतिम क्षण तक अपनी स्वामी भक्ति प्रदर्शित करता रहा। BBC की विश्वसनीयता के बारे में कहा जाता है कि राजीव गांधी ने अपनी माँ इंदिरा गांधी की हत्या के समाचार की पुष्टि के लिए BBC का सहारा लिया था। उस समय आल इंडिया रेडियो एकतरफ़ा था, तथा समाचार पत्रों की पहुँच बहुत सीमित थी। 
      आज परिस्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो चुका है।भारत का इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया सर्वव्यापी है तथा कोई समाचार तत्काल प्राप्त हो जाता है। समाचारों और सूचनाओं की बाढ़ आ गई है। भारत भी बदल गया है; वह विश्व की पांचवीं आर्थिक तथा चौथी सैनिक शक्ति बन चुका है एवं विश्व में सबसे तेज़ी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है। भूमंडलीकरण तथा तकनीक के कारण समाचारों का आदान प्रदान विस्मयकारी तीव्र हो गया है। 
     पश्चिमी मीडिया भारत की बढ़ती शक्ति के कारण उसके प्रजातंत्र की खामियों को माइक्रोस्कोपिक आँखों से देखता है। अपने तथा कथित उदारवादी दृष्टिकोण से वह भारत की स्थिति को देखता है, परंतु उसका ध्यान रूस और चीन की आंतरिक तानाशाही की ओर नहीं जाता है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात पश्चिमी देशों ने भारत में प्रजातंत्र अधिक समय तक टिके नहीं रहने की भविष्यवाणी कर दी थी। आज सात दशक बाद उनकी आशाओं के विपरीत इस विशालतम प्रजातंत्र ने गहरी जड़ें जमा ली है। पश्चिमी मीडिया अब हमारे प्रजातंत्र की केवल कमियां निकालता है। अपने संपादकीय के माध्यमों से कृपालु बन कर हमें उपदेश भी देता है। भारत जैसी विशाल जनसंख्या और अद्भुत विविधता वाले देश में सरकारों को राज्य करना आसान नहीं है। निस्संदेह हमारे प्रजातंत्र में कमियां रहीं है। प्रारंभ से ही सत्ता पक्ष ने हमेशा विपक्ष को कानूनों की आड़ में प्रताड़ित किया है। धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन के भी प्रकरण होते रहे हैं। सरकारें धार्मिक समानता के मामलों में आपराधिक उदासीनता अथवा अति सक्रियता दिखाती रही हैं। बाबरी मस्जिद के ढहा दिए जाने के बाद भारत की धर्मनिरपेक्षता पर प्रश्नचिन्ह खड़े हुए थे। लेकिन पश्चिमी मीडिया भारत की अत्यंत जटिल सामाजिक संरचना और व्यवस्थाओं को समझने में अक्षम है। पश्चिम देशों की अपनी स्वयं की राजनैतिक और सामाजिक विद्रूपताओं पर वहाँ का मीडिया सोचता तो है, परंतु उपदेश नहीं देता है।
   द इकोनॉमिस्ट में मैंने स्वयं पढ़ा कि भारत में वर्तमान चुनाव के परिणाम तो आएँगे, परंतु उनकी राजनैतिक वैधता नहीं होगी। स्वीडन की एक संस्था ने मोदी सरकार के बारे में कहा है कि उसके अत्याचारों के कारण भारत में लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता नष्ट हो जाएगी। लंडन की एक संस्था चैथम हाउस ने तो यहाँ तक कह दिया कि भारत का लोकतंत्र केवल पश्चिम की निगरानी में ही चल सकता है। भारत का वर्तमान विपक्ष भी मोदी की तानाशाही और लोकतंत्र  ख़तरे में होने की बातें करता है, परंतु यह उनका अधिकार और कर्त्तव्य दोनों है। परंतु पश्चिमी मीडिया का आक्रामक रवैया केवल मोदी सरकार के ही विरुद्ध नहीं है, अपितु वह भारत के उदय के प्रति एक विचित्र भावना से ग्रस्त है।

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