* नए श्रम कानूनों से मजदूरों को मिल रहा संबल, असंगठित क्षेत्र में अभी भी "दिल्ली" दूर
- प्रदीप कुमार वर्मा
श्रमिक अथवा मजदूर अथवा कामगार किसी भी देश के निर्माण और विकास में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाते हैं, इस तथ्य से किसी को भी इनकार नहीं है। देश और दुनिया में समर्पित कामगारों के बिना विकास की बात करना बेमानी है। ऐसे ही कामगारों के समर्पण को सलाम करने के लिए प्रतिवर्ष एक मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है। यह दिन श्रमिकों के योगदान को पहचानने और उनके अधिकारों को बढ़ावा देने के लिए भी समर्पित है। यह समाज और अर्थव्यवस्था में श्रम के महत्व की याद दिलाने का भी काम करता है। मजदूरों की अहमियत को बताते हुए केंद्रीय श्रम मंत्री के रूप में कार्यभार संभालने के बाद बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने कहा था कि "समय बदल गया है। सत्ता और कानून के बल पर मजदूर वर्ग का दमन संभव नहीं है। मजदूर एक इंसान है और उसे मानवाधिकार मिलना चाहिए। फिलहाल सरकार के सामने तीन सवाल हैं। एक समझौता, श्रमिकों की निश्चित मजदूरी एवं शर्तें, श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध। श्रमिकों के जीवन स्तर को ऊंचा किया जाना चाहिए। हमें अपने बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना चाहिए। मैं हमेशा मजदूर वर्ग के साथ खड़ा रहूंगा।"
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस का इतिहास 1886 से मिलता है। तब पश्चिम में औद्योगीकरण का दौर था और मज़दूरों से सूर्योदय से सूर्यास्त तक काम करने की उम्मीद की जाती थी। ऐसे में श्रमिकों के हितों को ध्यान में रखते हुए अमेरिका और कनाडा की ट्रेड यूनियनों के संगठन फेडरेशन ऑफ ऑर्गेनाइज़्ड ट्रेड्स एंड लेबर यूनियन ने तय किया कि मज़दूर एक मई, 1886 के बाद रोज़ाना 8 घंटे से ज़्यादा काम नहीं करेंगे। यह हड़ताल कई देशों में आठ घंटे के कार्य दिवस के नियम को स्थापित करने में सफल रही। भारत में मई दिवस के अतीत पर गौर करें तो एक मई 1923 को लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान द्वारा मद्रास में भारत में मजदूर दिवस का पहला उत्सव आयोजित किया गया था। कम्युनिस्ट नेता मलयपुरम सिंगारवेलु चेट्टियार ने इस अवसर को मनाने के लिए लाल झंडा उठाया था। तब चेट्टियार ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया कि सरकार को भारत में मजदूर दिवस पर राष्ट्रीय अवकाश की घोषणा करनी चाहिए। इस प्रकार दुनिया भर की समाजवादी और श्रमिक पार्टियों के संगठन द्वितीय अंतरराष्ट्रीय ने साल 1889 के पेरिस सम्मेलन में मज़दूरों के हक़ों की आवाज़ बुलंद करने के लिए एक मई का दिन चुना। तब से कालांतर में कई श्रम सुधार हुए और मजदूरों की स्थिति में भी सकारात्मक बदलाव आया है।
आज के दौर में देश और दुनिया में औद्योगीकरण बढ़ाने के साथ ही श्रमिकों की संख्या बढ़ी है, जिसके चलते उनके सुविधा एवं काम के घंटे पर एक बार फिर से बहस शुरू हो गई है। लेकिन यह बात भी सही है कि बीते सालों में काम से कम भारत में ऐसे नए श्रम कानून का सूत्र प्राप्त हुआ। जिसके चलते श्रमिकों का कल्याण एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई है और मजदूर वर्ग को इन कानून से संबल मिला है। काम के घंटे को तय करने के बाद वर्ष 1948 में भारत सरकार न्यूनतम मजदूरी अधिनियम, 1948 लाई। इस अधिनियम में मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी पर मानक तय किए गए । यह अधिनियम सरकार को विनिर्दिष्ट रोजगारों में कार्य कर रहे कर्मचारियों के लिए न्यूनतम मजदूरी निर्धारित करने के लिए प्राधिकृत करता है। इसमें उपयुक्त अन्तरालों और अधिकतम पाँच वर्षो के अन्तराल पर पहले से निर्धारित न्यूनतम मजदूरियों की समीक्षा करने तथा उनमें संशोधन करने का प्रावधान है। केन्द्रीय क्षेत्र में न्यूनतम मजदूरी का प्रवर्तन केन्द्रीय औद्योगिक संबंध तंत्र के जरिए सुनिश्चित किया जाता है। केन्द्र सरकार ने केन्द्रीय क्षेत्र के अर्न्तगत 40 अनुसूचित रोजगारों के लिए न्यूनतम मजदूरी अधिनियम,1948 के अर्न्तगत न्यूनतम मजदूरी निर्धारित की है।
इसके साथ ही केंद्र सरकार द्वारा खतरनाक कार्य में बालकों के श्रम को रोकने के लिए बाल श्रम अधिनियम वर्ष 1986 में लाया गया। बाल श्रम (निरोध एवं विनियमन)अधिनियम,1986 कतिपय खतरनाक पेशों और प्रक्रियाओं में बच्चों के रोजगार को प्रतिबंधित करता है और अन्य क्षेत्रों में उनके रोजगार को विनियमित करता है। एक अन्य केंद्रीय अधिनियम में महिलाओं को श्रम के दौरान विशेष सुविधा प्रदान करने के उपाय किए गए हैं वर्ष 1961 में लाया गया प्रसूति लाभ अधिनियम 1961 बच्चे के जन्म से पूर्व और बाद में कतिपय अवधि के लिए कतिपय प्रतिष्ठानों में महिलाओं के रोजगार को विनियमित करता है और प्रसूति एवं अन्य लाभों का प्रावधान करता है। यह अधिनियम कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम, 1948 के अर्न्तगत शामिल कर्मचारियों को छोडकर दस अथवा इससे अधिक व्यक्तियों को नियुक्त करने वाले सभी खानों ,कारखानों, सर्कस, उद्योग, प्लांटों, दुकानों एवं प्रतिष्ठनों पर लागू होता है।
एक जमाना था का महिलाओं और पुरुषों में काम तथा पारिश्रमिक को लेकर भेद किया जाता रहा था। लेकिन वर्तमान में जब सरकार ने आधी आबादी के साथ इस भेदभाव को समाप्त करने की पहल की तो, केंद्र सरकार द्वारा समान पारिश्रमिक अधिनियम,1976 लाया गया। इस अधिनियम में पुरुष तथा महिला श्रमिकों के लिए एक ही और समान प्रकृति के कार्य के लिए समान मजदूरी का तथा स्थानांतरणों, प्रशिक्षण और पदोन्नति आदि के मामलों में महिला कर्मचारियों के साथ भेदभाव नहीं करने का प्रावधान है। श्रमिकों के कल्याण के लिए बनाए गए कानून में एक कानून बोनस संदाय अधिनियम, 1965 भी है। यह अधिनियम सभी कारखानों और प्रत्येक उस प्रतिष्ठान पर लागू होता है। जो 20 अथवा इससे अधिक श्रमिकों को नियुक्त करता है। बोनस संदाय अधिनियम,1965 में मजदूरी के न्यूनतम 8.33 प्रतिशत बोनस का प्रावधान है। पात्रता उद्देश्यों के लिए निर्धारित वेतन सीमा 3,500 रुपये प्रतिमाह है और भुगतान इस निर्धारण के अन्तर्गत होता है कि 10,000 रु.तक प्रति माह मजदूरी अथवा वेतन लेने वाले कर्मचारियों को देय बोनस का परिकलन इस प्रकार किया जाता है जैसे कि उनका वेतन अथवा उनकी मजदूरी 3,500 रुपये प्रतिमाह हो।
इन सबके अलावा केंद्र सरकार द्वारा श्रमिक कल्याण के क्षेत्र में कई नवीन कानून एवं अधिनियम पारित कर उनको लागू कराया जा रहा है। जिससे बीते सालों में श्रमिकों की दशा और दिशा में सुधार हुआ है। उद्योग तथा श्रम संबंधी कानूनों में कारखाना अधिनियम 1948, औद्योगिक संघर्ष अधिनियम, 1947, भारतीय श्रम संघ अधिनियम, 1926, भृति-भुगतान अधिनियम 1936, श्रमजीवी क्षतिपूर्ति अधिनियम 1923 इत्यादि उद्योग तथा श्रम सम्बन्धी विधान की श्रेणी में आते हैं। इनके अलावा श्रमिकों के लिए विभिन्न सामाजिक लाभों- बीमारी, प्रसूति, रोजगार सम्बन्धी आघात, प्रॉविडेण्ट फण्ड, न्यूनतम मजदूरी इत्यादि-की व्यवस्था भी कानून करते हैं। इस श्रेणी में कर्मचारी राज्य बीमा अधिनियम 1948, कर्मचारी प्रॉविडेण्ट फण्ड अधिनियम 1952, न्यूनतम भृत्ति अधिनियम 1948, कोयला-खान श्रमिक कल्याण कोष अधिनियम1947, भारतीय गोदी श्रमिक अधिनियम 1934, खदान अधिनियम 1952 तथा मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 इत्यादि प्रमुख हैं। भारत में वर्तमान में 128 श्रम तथा औद्योगिक विधान लागू हैं, जिनके जरिए श्रमिकों की दशा में अपेक्षित सुधार आया है। यहां पर यह भी कहना गलत नहीं होगा कि असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए अभी भी कई कानूनी प्रावधान किया जाने बाकी है और इस मामले में दिल्ली अभी भी "दूर" है।
-लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।